लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
केरल और कर्नाटक-इन दोनों राज्यों में औरत की स्थिति भारत के अन्यान्य राज्यों से बेहतर है। इसी बेहतर राज्य कर्नाटक में, कुछ दिनों पहले अचानक 46 वर्ष पुराना क़ानून दुबारा लागू कर दिया गया। (दुकान और वाणिज्य क़ानून, 1961)। वह क़ानून था-औरतें रात आठ बजे के बाद कहीं काम नहीं कर सकतीं। यानी रात के वक़्त उनके काम करने पर पाबन्दी लगा दी गयी। जो औरत इस कानून का उल्लंघन करेगी, उसे छह महीने की जेल की सज़ा होगी और नकद दस हजार रुपये जुर्माना। मानो भारतवर्ष पर अचानक आँधी-तूफान, टुकड़ा भर मध्ययुग उतर आया।
लेकिन क्या असल में ही मध्ययुग उतरा है? क्या अनेक अंचलों में यह खुलेआम विराज नहीं कर रहा है और चोरी-छिपे क्या हर कहीं यह मौजूद नहीं है? मानसिकता का पर्याप्त उत्तरण नहीं हुआ है? राष्ट्र को 'गणतान्त्रिक' कहा जा रहा है, भले-भले क़ानून भी बनाये जा रहे हैं, गृह-निग्रह के ख़िलाफ़ भी आधुनिक कानून लागू किया गया; अल्पसंख्यकों के लिए न सही, बहुसंख्यक लोगों के लिए समानाधिकार का प्रबन्ध किया जा रहा है, जात-पाँत के खिलाफ सख्त कानून पहले से ही है, दहेज-प्रथा के खिलाफ भी क़ानून है? लेकिन इससे क्या होता है? समाज में क्या जाति-प्रथा नहीं है? दहेज का लेन-देन क्या हमेशा ही जारी नहीं है? इस भारतवर्ष में औरतें क्या नित्य-प्रति इस प्रथा की शिकार नहीं हो रही हैं? वधू-हत्या, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, औरत-तस्करी, वेश्या प्रथा, सभी कुछ सती-दाह की आग की तरह नहीं धधक रहे हैं? ये सब अपने मौजूद होने की पूरी गवाही देते हैं। वे लोग क़ानून नहीं मानते।
इसी मध्ययुग में अनगिनत लड़कियाँ, औरतें शिक्षा और आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हैं और कर्नाटक सरकार है कि पुराने कागजातों पर से धूल झाड़कर, खोज-खाजकर पुराने क़ानून निकालने में लगी है यानी वे लोग औरतों के पैरों में जंजीर डालना चाहते हैं। रातोंरात औरतों पर हमले बढ़ रहे हैं। इसलिए औरतों को गृहबन्दी कर डालो। सिर-दर्द की वजह से सिर ही काट फेंकने जैसा समाधान! अब अगर दिन के वक़्त औरतों पर हमले हों, तो दिन के वक़्त भी उन लोगों का घर से निकलना बन्द कर दिया जायेगा? वैसे, औरतों पर हमले कब नहीं होते? रात को होते हैं, तो क्या दिन के वक़। नहीं होते? सच तो यह है कि औरतों की ज़िन्दगी न दिन में सुरक्षित है, न रात में! सुरक्षित क्यों नहीं है, कर्नाटक सरकार को इसकी वजह खोज निकालनी चाहिए। समस्या की जड़ ही अगर निर्मूल कर दो जाये तो समस्या ही नहीं रहेगी।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं